What about Indian Law | Lakhan Saroj’s 43-Year Wait for Justice 2025

लखन सरोज की 43 साल की न्याय की प्रतीक्षा: भारतीय न्यायपालिका की देरी पर एक आलोचना

कौशाम्बी, उत्तर प्रदेश, 21 सितंबर 2025: कल्पना कीजिए, एक साधारण किसान की जिंदगी अचानक उलट जाए और वो 43 साल जेल की सलाखों के पीछे बिताए, सिर्फ इसलिए कि न्याय का पहिया घूम ही न सके। यही कहानी है लखन सरोज की, जो 104 साल की उम्र में आखिरकार आजाद हुए। 1977 में एक गांव की लड़ाई के बाद उन पर हत्या का आरोप लगा, और 1982 में सेशन कोर्ट ने उम्रकैद की सजा सुना दी। लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मई 2025 में उन्हें बरी कर दिया। ये खबर सुनकर दिल भर आता है – न्याय मिला, लेकिन कितनी देर से! लखन की बेटी आशा देवी ने कहा, “पापा को पहचानने में भी वक्त लग गया, इतने साल हो गए।”

सब कुछ 16 अगस्त 1977 को शुरू हुआ। गौराये गांव में दो गुटों की पुरानी दुश्मनी भड़क उठी। शराब पीकर लाठी-डंडों से हमला हुआ, और प्रभु सरोज नाम के एक आदमी की मौत हो गई। लखन सहित चार लोग गिरफ्तार हुए। कुछ दिनों बाद बेल मिल गई, लेकिन मुकदमा चला। 1982 में प्रयागराज के सेशन कोर्ट ने सबको उम्रकैद ठोक दी। लखन मंजनपुर जेल चले गए। उनके साथी कल्लू और कलेसर तो जेल से बाहर ही मर गए, जबकि देशराज बिस्तर पर पड़े-पड़े। लखन के बेटे ने कोशिश नहीं की, लेकिन बेटियों ने वकील हायर किए। फिर भी, हाई कोर्ट में अपील अटक गई – वकील आते-जाते रहे, पैसे खर्च होते रहे, लेकिन सुनवाई नहीं।

मई 2025 में आखिरकार हाई कोर्ट ने सबूतों की दोबारा जांच की। गवाहों की गवाही कमजोर पाई गई, प्रक्रिया में चूकें मिलीं। जज ने कहा, अभियोजन का केस मजबूत नहीं। लखन बरी हो गए। लेकिन रिहाई में भी देरी हुई – नौकरशाही की वजह से। डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (DLSA) ने दखल दिया, तो 23 मई को जेल से बाहर आए। बेटी ने गेट पर आंसू बहाते हुए गले लगाया। लखन ने कहा, “मैंने कभी मजदूरी नहीं की जेल में, उम्र की वजह से। शांति से रहा।” लेकिन ये शांति 43 साल की कैद की कीमत पर मिली।

image from google.com

image from Google.com

अब सवाल ये है कि ये देरी क्यों? भारतीय न्यायपालिका पर बोझ है – लाखों केस लंबित हैं। नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक, हाई कोर्टों में ही 50 लाख से ज्यादा मामले अटके पड़े हैं। गरीब, अनपढ़ लोग जैसे लखन सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। वकीलों की कमी, जजों की भारी संख्या, और प्रक्रियागत जटिलताएं सब जिम्मेदार। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि ‘जस्टिस डिलेन्ड इज जस्टिस डिनाइड’, लेकिन अमल कहां? लखन का केस तो चरम उदाहरण है – 48 साल बाद बरी, जब जिंदगी का आधा हिस्सा जेल में कट चुका। ये सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं, लाखों पीड़ितों की पीड़ा है।

क्या सुधार संभव हैं? हां, अगर फास्ट-ट्रैक कोर्ट बढ़ें, डिजिटल फाइलिंग हो, और गरीबों के लिए मुफ्त कानूनी मदद मजबूत बने। लखन की बेटियों ने साबित किया कि परिवार का साथ कितना मायने रखता है। लेकिन सरकार और न्यायपालिका को भी जागना होगा। ये देरी न सिर्फ इंसानियत को शर्मसार करती है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ें हिला देती है।

लखन अब बेटी के घर शरिरा में रह रहे हैं। उनकी कहानी हमें सोचने पर मजबूर करती है – न्याय समय पर मिले, तो ही सच्चा न्याय। आप क्या कहते हैं? क्या न्यायपालिका में सुधार के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए? कमेंट्स में अपनी राय शेयर करें।

Leave a Reply