राणा सांगा: इतिहास का एक वीर योद्धा
राणा सांगा, जिनका पूरा नाम महाराणा संग्राम सिंह था, भारतीय इतिहास में एक महान योद्धा और मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के शासक के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका जन्म 12 अप्रैल 1482 को हुआ था और वे 1508 से 1528 तक मेवाड़ के राणा रहे। “राणा सांगा नाम ही काफी था” यह कहावत उनके अदम्य साहस, नेतृत्व कौशल और युद्ध कौशल को दर्शाती है। वे न केवल एक कुशल शासक थे, बल्कि एक ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अपने समय के सबसे शक्तिशाली शासकों के खिलाफ डटकर मुकाबला किया।
प्रारंभिक जीवन और सिंहासनारोहण
राणा सांगा का जन्म राणा रायमल के पुत्र के रूप में हुआ था। उनके जन्म के समय मेवाड़ एक समृद्ध और शक्तिशाली राज्य था, लेकिन आसपास के क्षेत्रों में मुगल, दिल्ली सल्तनत और अन्य राजपूत राज्यों के साथ तनाव बढ़ रहा था। राणा सांगा को बचपन से ही युद्ध कला और शासन की शिक्षा दी गई। अपने पिता की मृत्यु के बाद, सिंहासन के लिए हुए संघर्ष में उन्होंने अपने भाइयों को परास्त कर 1508 में मेवाड़ की गद्दी संभाली।
युद्ध कौशल और वीरता
राणा सांगा अपने युद्ध कौशल के लिए विख्यात थे। कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में 18 गंभीर चोटें झेलीं, जिसमें एक आंख, एक हाथ और एक पैर की क्षति शामिल थी। फिर भी, उनकी वीरता और संकल्प में कोई कमी नहीं आई। उन्होंने लगभग 100 से अधिक युद्ध लड़े, जिनमें से अधिकांश में वे विजयी रहे। उनकी सबसे बड़ी ताकत थी उनकी सेना को एकजुट करने और प्रेरित करने की क्षमता।
उनके शासनकाल में मेवाड़ ने कई पड़ोसी राज्यों, जैसे मालवा और गुजरात के सुल्तानों, के खिलाफ युद्ध लड़े। राणा सांगा ने अपनी सैन्य शक्ति और रणनीति से इन क्षेत्रों पर अपना प्रभाव बढ़ाया। उनकी सबसे प्रसिद्ध लड़ाइयों में से एक थी खानवा की लड़ाई (1527), जिसमें उन्होंने मुगल बादशाह बाबर का सामना किया।
खानवा की लड़ाई और बाबर से टक्कर
खानवा की लड़ाई राणा सांगा के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और दुखद अध्याय था। उस समय बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई (1526) में इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर कब्जा कर लिया था। राणा सांगा ने राजपूतों और अन्य भारतीय शासकों को एकजुट कर बाबर के बढ़ते प्रभाव को रोकने की कोशिश की। उन्होंने एक विशाल सेना तैयार की, जिसमें कई राजपूत सरदार और सहयोगी शामिल थे।
17 मार्च 1527 को खानवा में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ। राणा सांगा की सेना संख्या में बाबर से कहीं अधिक थी, लेकिन बाबर की तोपों और आधुनिक युद्ध रणनीति ने बाजी पलट दी। इस युद्ध में राणा सांगा बुरी तरह घायल हो गए और उनकी सेना को हार का सामना करना पड़ा। इस हार ने मेवाड़ की शक्ति को कमजोर कर दिया और मुगल साम्राज्य को भारत में स्थापित होने का मौका दिया।
व्यक्तित्व और विरासत
राणा सांगा न केवल एक योद्धा थे, बल्कि एक दूरदर्शी शासक भी थे। उन्होंने अपने राज्य में कला, संस्कृति और व्यापार को बढ़ावा दिया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी राजपूत एकता की भावना को मजबूत करना। वे अपने साहस, सम्मान और स्वतंत्रता के प्रति प्रेम के लिए आज भी याद किए जाते हैं।
उनकी मृत्यु 30 जनवरी 1528 को हुई। ऐसा कहा जाता है कि खानवा की हार के बाद वे अपने कुछ विश्वासघाती सहयोगियों द्वारा जहर दिए जाने से मरे। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र राणा रतन सिंह और बाद में राणा उदय सिंह ने मेवाड़ की गद्दी संभाली।
निष्कर्ष
राणा सांगा का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। वे एक ऐसे शासक थे जिन्होंने अपने राज्य की स्वतंत्रता और सम्मान के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। उनकी वीरता की कहानियां आज भी लोकगीतों और कथाओं में जीवित हैं। सचमुच, “राणा सांगा नाम ही काफी था” – एक ऐसा नाम जो साहस, बलिदान और शौर्य का प्रतीक बन गया।