“Pithoragarh Protest Against Supreme Court Verdict | 2014 के बच्ची हत्या मामले में अख्तर अली की बरीगी पर जनता का आक्रोश”

Pithoragarh Protest में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ उबाल: 2014 बच्ची हत्या मामले में अख्तर अली की बरी पर जनता का गुस्सा

उत्तराखंड के Pithoragarh Protest जिले में 2014 में हुई सात साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म और हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने स्थानीय लोगों में आक्रोश की लहर दौड़ा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फांसी की सजा पाए आरोपी अख्तर अली को बरी कर दिया, जिसके बाद पिथौरागढ़ की सड़कों पर सैकड़ों लोग इकट्ठा होकर न्याय की मांग कर रहे हैं। यह मामला, जो एक दशक से भी अधिक समय से चर्चा में रहा, अब एक बार फिर सुर्खियों में है, और स्थानीय समुदाय इस फैसले को “न्याय का मखौल” बता रहा है।

घटना का पृष्ठभूमि: 2014 की दिल दहलाने वाली वारदात

20 नवंबर, 2014 को हल्द्वानी के शीशमहल क्षेत्र में एक पारिवारिक विवाह समारोह से सात साल की मासूम बच्ची लापता हो गई थी। चार दिन बाद, गौला नदी के पास जंगल में उसका शव बरामद हुआ, जिसने पूरे क्षेत्र को झकझोर कर रख दिया। पुलिस जांच में पता चला कि बच्ची के साथ यौन उत्पीड़न के बाद उसकी हत्या की गई थी। अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि अख्तर अली ने बच्ची को जंगल में ले जाकर यह जघन्य अपराध किया और शव को पत्तों से ढककर छोड़ दिया।

हल्द्वानी के विशेष POCSO कोर्ट ने अख्तर अली को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376ए, 363, 201, POCSO एक्ट की विभिन्न धाराओं, और IT एक्ट की धारा 66सी के तहत दोषी ठहराया था। उसे फांसी की सजा सुनाई गई, जिसे 18 अक्टूबर, 2019 को उत्तराखंड हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था। सह-आरोपी प्रेमपाल वर्मा को भी दोषी ठहराया गया था।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला: सबूतों की कमी और बरी का आदेश

11 सितंबर, 2025 को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने इस मामले में चौंकाने वाला फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष अख्तर अली के अपराध को साबित करने के लिए “परिस्थितियों की पूरी और अटूट श्रृंखला” स्थापित करने में विफल रहा। कोर्ट ने सबूतों में गंभीर खामियां पाईं, खासकर अख्तर अली की गिरफ्तारी के संबंध में।

अभियोजन पक्ष ने दावा किया था कि पुलिस ने एक “गुप्त शिकायतकर्ता” की सूचना और दो मोबाइल नंबरों के आधार पर 27 नवंबर, 2014 को लुधियाना में अली को गिरफ्तार किया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि इस गिरफ्तारी का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड, जैसे सामान्य डायरी प्रविष्टि या प्राधिकरण, मौजूद नहीं था। कॉल रिकॉर्ड भी जनवरी 2015 में प्राप्त किए गए, जो गिरफ्तारी के बाद थे, और वे नंबर अली के नाम पर नहीं थे। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि स्थानीय लोगों ने गिरफ्तारी और तलाशी के दौरान गवाही देने से इनकार कर दिया था।

इन कमियों के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने न केवल उत्तराखंड हाईकोर्ट के फैसले को रद्द किया, बल्कि अख्तर अली और प्रेमपाल वर्मा दोनों को बरी करने का आदेश दिया। कोर्ट ने कहा, “सबूत गढ़ने का मजबूत अनुमान” इस मामले में मौजूद है, जिसने अभियोजन के दावों पर सवाल उठाए।

पिथौरागढ़ में जनता का आक्रोश: सड़कों पर विरोध प्रदर्शन

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने पिथौरागढ़ और आसपास के इलाकों में भारी रोष पैदा किया। स्थानीय निवासियों, सामाजिक संगठनों और पीड़ित परिवार के समर्थकों ने सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए। प्रदर्शनकारियों ने नारे लगाए और मांग की कि बच्ची को न्याय दिलाने के लिए दोबारा जांच हो। कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को “अन्यायपूर्ण” करार देते हुए कहा कि यह निर्णय समाज में गलत संदेश देता है।

एक प्रदर्शनकारी, रमेश सिंह, ने कहा, “यह कैसे हो सकता है कि इतने गंभीर अपराध का दोषी बरी हो जाए? क्या हमारी बेटियों की जान की कोई कीमत नहीं है?” सामाजिक कार्यकर्ता अनीता रावत ने जोड़ा, “सबूतों की कमी का हवाला देकर अपराधी को छोड़ देना न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाता है। हमें और मजबूत जांच प्रणाली चाहिए।”

सामाजिक और कानूनी निहितार्थ: क्या कहता है यह मामला?

यह मामला भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली की चुनौतियों को उजागर करता है। एक तरफ, सुप्रीम कोर्ट का फैसला सबूतों की गुणवत्ता और कानूनी प्रक्रिया की अखंडता पर जोर देता है। दूसरी तरफ, यह जनता के बीच यह धारणा पैदा करता है कि गंभीर अपराधों में भी दोषी बच सकते हैं।

पिथौरागढ़ में विरोध प्रदर्शन न केवल इस खास मामले के खिलाफ हैं, बल्कि यह महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बढ़ते अपराधों पर व्यापक गुस्से को भी दर्शाते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता इसे एक अवसर के रूप में देख रहे हैं ताकि पुलिस जांच में सुधार, फोरेंसिक सबूतों का बेहतर संग्रह, और POCSO जैसे कानूनों के कड़ाई से कार्यान्वयन की मांग की जाए।

भविष्य की राह: न्याय की उम्मीद बाकी

पिथौरागढ़ की जनता का गुस्सा और दुख इस बात का सबूत है कि यह मामला उनके दिलों में गहरे तक बसा है। प्रदर्शनकारी अब केंद्र और राज्य सरकार से हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं ताकि इस मामले की दोबारा जांच हो और पीड़ित परिवार को इंसाफ मिले।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला कानूनी दृष्टिकोण से अंतिम हो सकता है, लेकिन सामाजिक और नैतिक स्तर पर यह बहस छेड़ता है कि क्या तकनीकी आधार पर बरी होने से वास्तव में न्याय की भावना पूरी होती है। पिथौरागढ़ की सड़कों पर गूंज रहे नारे और मासूम बच्ची की यादें यह सवाल उठा रही हैं कि क्या हमारी व्यवस्था सचमुच सुरक्षित और निष्पक्ष है।

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